धर्म

हनुमान जी ने अपने लिए भगवान श्रीराम से क्या मांगा?

भगवान शंकर समाधि से जाग कर, श्रीसती जी को हरि कथायें सुनाने में मस्त थे। मानों वे समझाना चाह रहे थे, कि प्रभु की कथा का हमारे जीवन में कितना महत्व है। मेरे और सती के मध्य, अगर यह दूरी बनी है, तो इसके पीछे एकमात्र यही तो कारण है, कि श्रीसती जी ने प्रभु की गाथा को नहीं सुना था, ओर आगे जाकर यही सती के पतन का कारण बना।

यहाँ एक बात समझ नहीं आ रही, कि अब तो जो होना था, हो चुका। जो बिगड़ना था, वह भी बिगड़ चुका। तो अब भगवान शंकर हरि कथा क्यों सुना रहे हैं? क्या इससे भी आगे कुछ घटने वाला था? जी हाँ! क्योंकि इसी समय श्रीसती जी के पिता प्रजापति दक्ष को, ब्रह्मा जी ने, सब ओर से योग्य मान कर प्रजापतियों का नायक बना दिया था। इतना बड़ा पद पाने के पश्चात, प्रजापति दक्ष के मन पर, अहंकार की बेल ने अपना अधिकार जमा लिया था-

‘बड़ अधिकार दच्छ जब पावा।

अति अभिनामु हृदयँ तब आवा।।

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं।

प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।।’

गोस्वामी तुलसीदास जी बड़ा सुंदर कहते हैं, कि यह अहँकार के डंक ने केवल प्रजापति दक्ष को ही नहीं डसा था, अपितु संसार में ऐसा आज तक कोई भी नहीं जनमा, जिसे पद मिला हो, और उसे मद न आया हो।

श्रीहनुमान जी, श्रीराम जी के अनन्य सेवक थे। श्रीराम जी उनकी भक्ति, सेवा व समर्पण से इतने प्रसन्न थे, कि वे अकसरा कहते थे, कि वैसे तो संसार में प्रत्येक प्राणी पर मेरा ऋण है, लेकिन एक हनुमान जी ही ऐसे महानुभव हैं, जिनका कि मैं स्वयं भी ऋणी हूं।

ऐसे महान भक्त, श्रीहनुमान जी को श्रीराम जी, एक बार भरी सभा में, सबके सामने सम्मान देने कर भावना से तर थे। कारण कि लंका विजय के पश्चात, श्रीराम जी सबको कोई न कोई पद दे रहे थे। जैसे वीर अंगद को किष्किंधा का राज्य दे दिया। विभीषण जी को लंका का राज्य दे ही चुके थे। अब श्रीहनुमान जी की बारी आई तो श्रीराम जी, श्रीहनुमान जी से ही पूछते हैं, कि हम आपको कोई पद देना चाहते हैं। आप स्वयं ही अपनी इच्छा बता दें, तो अतिउत्तम होगा।

तब श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि हे प्रभु हमें आप एक ही पद देंगे तो हमें स्वीकार नहीं। आप देने ही लगे हैं, तो हमें एक नहीं, अपितु दो-दो पद देने की कृपा करें।

यह सुनना था, कि पूरी सभा में चर्चा होने लगी। हर कोई कहने लगा, कि अरे! ऐसा कैसे हो गया, कि श्रीहनुमान जी भी पद के लोभी होने लगे? हम तो ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। तब भगवान श्रीराम जी ने भी जिज्ञासा रखते हुये कहा, कि हे हनुमंत! तुम कौन से दो पद पाना चाहते हो? एक बार हमें बताने का तो कष्ट करो। भले ही उसे पूर्ण कर पाना संभव सा प्रतीत न होता हो, लेकिन आपकी इच्छा है, तो हम हर परिस्थिति में आपके दो पद पाने की इच्छा को पूर्ण करेंगे। फिर भले ही इसके लिए हमें अयोध्या जी का सिंहासन ही क्यों न त्यागना पड़े। तब श्रीहनुमान जी दोनों हाथ जोड़ कर, श्रीराम जी से विनती करते हैं, कि हे दीनानाथ! हम किसी राज सिंहासन की बात नहीं कर रहे। हमें संसार के राजपदों से भला क्या लेना देना? हमें यह तुच्छ व नश्वर पदों की कोई अभिलाषा नहीं। बल्कि हमें तो तीनों लोकों की संपदा से भी श्रेष्ठ, पावन व अमूल्य आपके युगल श्रीचरण चाहिए। यह सुनना था, कि श्रीराम जी ने हनुमंत लाल जी को अपने कलेजे से लगा लिया।

श्रीहनुमान जी के प्रसंग में तो यह कहना युक्तिसंगत था। लेकिन क्या प्रजापति दक्ष के संबंध में ऐसी विराटता व दिव्यता दूर-दूर तक थी? क्या ब्रह्मा जी द्वारा प्रजापतियों का नायक बनाया जाना, प्रजापति दक्ष को पच पाता है? निःसंदेह नहीं। क्योंकि पद मिलते ही, प्रजापति दक्ष अहँकार में चूर हो जाता है। मद में चूर प्रजापति दक्ष, ऐसा क्या अक्षम्य अपराध कर बैठता है, जिससे कि श्रीसती जी भी प्रभावित होती हैं, जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।

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