धर्म

श्रीराम जी के मधुर और रहस्यमई वचन सुनकर श्रीसती जी भीतर तक मानों हिल सी गई

श्रीसती जी ने माता सीता जी का रुप धारण कर लिया था। वैसे तो यह किसीके लिए भी, प्रसन्नता का विषय होना चाहिए था, कि कोई नारी, जगत जननी के रुप को धारण करने की चेष्टा रखती है। लेकिन बात अगर वेष धारण करने तक ही सीमित हो, और गुणों को अंगीकार करने की कोई मंशा ही न हो, तो निश्चित ही इसका लाभ शून्य से अधिक कुछ नहीं है।

श्रीसती जी भी, ऐसा ही कुछ कर रही थी। वे जगत जननी माता सीता जी का केवल रुप तो धारण कर रही थी। लेकिन स्वयं को श्रीसीता जी जैसा बनाने में उनकी कोई रुचि नहीं थी। सच कहें, तो वे श्रीसीता जी के दिव्य चरित्र को दूर-दूर तक तिनका भर भी महसूस नहीं कर रही थी। वे भूल गई थी, कि श्रीसीता ऐसी महान नारी हैं, जिन्हें स्वयं कोई अधिकृत वनवास नहीं हुआ है, लेकिन श्रीराम जी के श्रीचरणों में समर्पण व प्रेम के चलते, वे सवः इच्छा से ही, वनों के कठिन मार्ग की अनुगामी बनी हैं। जो भी जीव, श्रीराम जी के महान मार्ग पर चल पड़ता है, उसे भला कौन पीछे हटा सकता है। श्रीराम जी के पदचिन्हों पर चलने वाले को रावण चुरा कर ले जाये, ऐसा स्वपन में भी नहीं हो सकता।

लेकिन संशय के तीखे बाणों से हताहत हुई, श्रीसती जी भला यह, कहाँ समझ पा रही थी। उन्हें तो बस यह सिद्ध करना था, कि वे सही थी, और भगवान शंकर वास्तविक्ता में भ्रम थे।

खैर! श्रीसती जी को जब श्रीलक्षमण जी ने देखा, तो वे आश्चर्य में पड़ गये, कि श्रीसीता जी तो हमारे बिलकुल समक्ष हैं। माता सीता जी इतनी सुलभता से हमें दिख पड़ेंगी, यह तो हमने सोचा ही नहीं था। लेकिन एक आश्चर्य मुझे रह-रह कर काटे जा रहा है, कि भईया श्रीराम जी, अपने समक्ष सीता मईआ को देख कर, कोई विशेष प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे रहे हैं। श्रीलक्ष्मण जी समझ गये, कि अवश्य ही इसमें कोई लीला है। मुझे मौन भाव से दूर से ही इस लीला का दर्शन करना चाहिए। यह सोचकर, श्रीलक्ष्मण जी ने अपने भावों को गुप्त कर लिया-

‘लछिमन दीख उमाकृत बेषा।

चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा।।

कहि न सकत कछु अति गंभीरा।

प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा।।’

श्रीराम जी ने भी, श्रीसती जी को, सीता रुप में निकटता से देख तो लिया था, लेकिन उन्होंने अपने मुख मण्डल पर कोई भाव नहीं आने दिया। वे पहले की ही भाँति ‘हे सीते! हे सीते! तुम कहाँ हो!’ पुकारते रहे। श्रीसती जी आश्चर्यचकित थी, कि श्रीराम जी मुझे देख क्यों नहीं रहे। अपनी उपस्थिति मुखर करने के लिए, श्रीसती जी, भगवान श्रीराम जी के बिलकुल समीप जा खड़ी हुई। अब तो भगवान श्रीराम जी के पास भी कोई मार्ग नहीं था, कि वे कहीं दूसरी ओर मुड़ पाते। श्रीराम जी को भी लगा, कि अब तो हमें भी अपने वास्तविक भावों प्रक्ट करना चाहिए। ऐसे में श्रीराम जी दोनों हाथ जोड़ कर मुस्करा कर बोले-

‘जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू।

पिता समेत लीन्ह निज नामू।।

कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू।

बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू।।’

श्रीराम जी दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुए, पिता सहित अपना नाम बताते हैं। तदपश्चात पूछते हैं, कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन मे अकेली किसलिए फिर रही हैं?

श्रीसती जी ने जैसे ही, श्रीराम जी के यह मधुर और रहस्यमई वचन सुनें, तो वे भीतर तक मानों हिल सी गई। वे समझ गई, कि श्रीराम जी ने तो मुझे पहचान लिया। मेरे भीतर का प्रपंच एक क्षण में ही माटी मे मिल गया। मैंने नाहक ही बैठे-बैठे यह पाप कर लिया। हाय! मुझसे यह भारी भूल कैसे हो गई? अब मैं क्या करुँ? मैं क्या सोच रही थी, और क्या से क्या निकला? ऐसा भयंकर अनर्थ मुझसे कैसे हो गया, यह मुझे पता ही नहीं चला। पता नहीं मेरे ऐसे कौन से कर्म रहे होंगे, कि मुझसे यह बवंडर हो गया। मेरी सुमति कब कुमति में तबदील हो गई, मैं भाँप ही न पाई। मैं ऐसे अनर्थकारी मार्ग पर चलुँगी, ऐसा तो मैंने स्वपन में भी नहीं सोचा था। अब मैं भगवान शंकर जी को जाकर क्या उत्तर दूँगी? मैंने अपने अज्ञान को श्रीराम जी के दिव्य प्रभाव पर थोपा, व शंकर जी की एक न मानी-

‘मैं संकर कर कहा न माना।

निज अग्यानु राम पर आना।।

जाइ उतरु अब देहउँ काहा।

उर उपजा अति दारुन दाहा।।’

श्रीसती जी के बोझिल कदम भगवान शंकर की ओर बड़ी मुश्किल से बढ़ रहे हैं। जितने वेग से श्रीसती जी, परीक्षा लेने हेतु भगवान शंकर से दूर हुई थी। उतने ही कठिन व भारी मन से वे वापिस लौट रही हैं। उनके कदमों में मानों बड़े-बड़े पर्वत बाँध दिये गये थे, कारण कि कदम हिल तक नहीं पा रहे थे। श्रीसती जी एवं भगवान शंकर के बीच, चंद कदमों की यह दूरी, मानों सागर के दो किनारों का मिलन हो चुका था। जो दूरी श्रीसती जी ने, कुछ ही पलों पहले क्षण भर में माप ली थी, वही दूरी उनसे ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानों इसे पाटने में युगों भी लग जायें, तो भी कम होगा।

श्रीराम जी ने जब देखा, कि श्रीसती जी के मन में क्षोभ की ज्वाला धधक रही है। वे अत्यंत दुखी हैं। ऐसे में श्रीराम जी अपनी माया का प्रभाव कम करके, अपनी एक और लीला को प्रगट करना चाह रहे हैं।

श्रीराम जी ने, अपनी कौन सी लीला प्रगट की, जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।

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